हाल ही में मैंने फिल्म लगान देखी है, जिसका विमोचन मैं शब्दों में बताने की कोशिश करूंगा।

फिल्म लगान की पृष्ठभूमि 1893 के आसपास के उस सामाजिक संरचना को बताती है जहाँ सामाजिक व्यवस्था व्यक्ति पर न हो कर समाज के विभिन्न अंगों पर आश्रित होती थी। करीब 3 घंटे की इस फिल्म में समाज के सभी ताने-बाने को इसमे बताने की कोशिश की गई है। मुझे गाँव के समाज को, उसकी संरचना को समझने में हमेशा से दिलचस्पी रही है, क्योंकि मेरा पालन पोषण गाँव में ही हुआ है। इसी दिलचस्पी को विस्तृत पात्रों द्वारा आशुतोष ग्वालरिकर नें बहुत ही बेहतरीन तरीके से प्रदर्शित किया है।

लगान 2001 में बनी हिन्दी भाषी फिल्म है। यह कहानी आशुतोष ग्वालरिकर की बेहतरीन कथाओं में से एक है। इसे निर्देशित भी आशुतोष ने ही किया है। इसमे आमिर खान सह-निर्माता के साथ इसके मुख्य किरदार भी है। साथ में इसमे कुछ विदेशी अभिनेता जैसे ग्रेसी सींह, और पॉल ब्लॉकथॉर्न भी है।

यह फिल्म 19 वीं सदी में बसी अंग्रेज राज के दौर की एक कहानी है। चम्पानेर गाँव का निवासी एक कर्मठ और जुझारू युवक है। प्रांत के सेना अध्यक्ष कप्तान रसल के साथ उसकी नहीं बनती। अंग्रेजों नें जब साल का लगान दो गुना वसूलने का आदेश दिया तब प्रांत के राजा के पास लगान माफी के लिए गाँव वाले भुवन के साथ ब्रिटिश छावनी जाते है। वहाँ राज्य ब्रिटिश अफसरों का खेल देख रहे थे। बात चीत के दौरान एक अफसरों  ने किसी एक गाँव वाले से धक्का मुक्की कर लेता है, इसे देखकर भुवन अफसरों से झगड़ा कर लेता है और उनके खेल की तुलना अपने गुल्ली-डंडे से कर लेता है। 

राजा के सामने भुवन लगान के खिलाफ अपनी बात रखता है। कप्तान रसल को यह बात नहीं पसंद आती और उसने भुवन के सामने लगान के बदले कुछ विशेष शर्त रखता है, कि अगर तुम लोग क्रिकेट जीतते हो तो साल भर का लगान माफ, हारे तो तीन गुना लगान! गाँव वाले इस चुनौती को अस्वीकार करते है, लेकिन भुवन इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है। अब सारा चम्पानेर भुवन के खिलाफ हो गया, सब अपने भविष्य को खतरे में बताने लगे। लेकिन भुवन के लिए तो मानों तो जब तक सांस है तब तक आस है।   

चुनौती की अगवानी के लिए भुवन नें लकड़ी का बल्ला और गेंद बनाता है, कुछ इक्का दुक्का को छोड़ भुवन के इस नए खेल में कोई सहभागी नहीं बनता है। क्रिकेट को सीखने के लिए भुवन और उसके कुछ साथी ब्रिटिश छावनी जाते है। छावनी से दूर छुप कर ये देखते है कुछ समय बाद इनपर कप्तान रसल की बहन एलिजाबेथ की नजर पड़ती है। एलिजाबेथ को पहले से ही ये चुनौती पसंद नहीं थी और इसे लेकर वो उसके भाई का व्यवहार, गाँव वालों के साथ पसंद नहीं आता था। गाँव की मदद के लिए एलिजाबेथ चोरी छुपे इस खेल को गाँव वालों को सीखाने लगती है। हिन्दी भाषा में बात करने के लिए वो अपने साथ छावनी से एक अनुवादक को भी ले जाती है।    

धीरे धीरे भुवन का पूरा दल अपने अपने तरीके से इस नए खेल को खेलने की कोशिश करने लगता है। जैसे लकड़ी काटने जैसी पकड़, मुर्गियाँ पकड़ने जैसी तेजी, पवन चक्की की तरह गेंदबाजी को वो इस खेल का रूप देते है। ये बहुत ही बेहतरीन तरीका होता है जब किसी नए खेल  को सीखने जुनून होता है। मुझे आज भी याद है, जब मैं गुल्ली-डंडा खेलने के लिए अपने हाथ को साइकिल को मोड़ने के लिए घूमता था।

ये फिल्म उस दौर के सामाजिक ढांचे को बताती है कि कैसे भारतीय समाजों में एक केन्द्रीकृत मानसिकता विकसित होती है। इस खेल प्रैक्टिस के दौरान एक पात्र कचरा है जिसे अछूत माना जाता है। एक बार खेलते वक्त कचरा के पास गेंद आ जाती है, कचरा उसे अपने उलटे हाथ से फेंकता है तो गेंद स्विंग की तरह घूम जाती है इसे देखकर सब दंग रह जाते है, इसको देखने के बाद भुवन अपने खेल में कचरा को भी शामिल करने का निर्णय लेता है और खेल में खिलाड़ियों की संख्या 11 हो जाती है।

आखिर वो दिन आ जाता है। जिसका इंतजार ब्रिटिश और गाँव वाले कर रहे होते है। खेल को देखने ब्रिटिश वरिष्ठ अधिकारी और प्रांत के राजा भी आते है। खेल तीन दिन के लिए निश्चित किया गया। टॉस शुरू हुआ तो गेंदबाजी गाँववालों के पक्ष में आई और बल्लेबाजी अंग्रेजों के। अंग्रेज अपने पूरे विकेट गवाने के बाद 300 के करीब एक लंबा स्कोर खड़ा कर देते है। गाँव वालों का साहस इस स्कोर के आगे तनिक भी डगमगाता नहीं। भुवन की टोली बल्लेबाजी की जोरदार शुरुवात करती है। धीरे धीरे अंग्रेजों की टीम से उनके भूतपूर्व ब्रिटिश सेना के सिपाही द्वारा देवा जल्द ही आउट हो जाते है। फिर ब्रिटिश खिलाड़ी गाँव के बल्लेबाजों की निंदा कर उनका मनोबल नीचे करने की कोशिश करते है। जिसके फलस्वरूप बल्लेबाजी कमजोर पड़ती दिखाई पड़ती है। दूसरे दिन का खेल खत्म हो जाता है और अभी आधे रन की और जरूरत पड़ती है। उधर आधी टीम आउट हो चुकी थी। मगर भुवन अभी खेल में बना हुआ था।    

तीसरे दिन भुवन के साथ अनिश्चितता भी पिच पर अपने खेल दिखा रही थी। क्योंकि उसके टीम के बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक इस्माइल को पिछले दिन चोट लगने से मैच खिच जाता है। ईश्वर काका अपने स्वास्थ्य को लेकर परेशान होते है और वो भी उस दिन आउट हो जाते है। इसके बाद कचरा की बल्लेबाजी आती है। भुवन नें बहुत कोशिश कि, वही बल्लेबाजी करे। आखरी गेंद पर कचरा को 6 रनों की जरूरत पड़ती है। मगर वह एक ही रन ले पाता है। अंग्रेज खुशी से भर जाते है और जश्न मानते लगते है। गाँव वाले सोचते है कि वो मैच हर गए है। तभी दूसरी तरफ से अंपायर नो बाल का इशारा करता है। जिससे एक मौका और मिल जाता है, अब बल्लेबाजी भुवन के हाथों में आ जाती है। बची गेंद पर भुवन उस गेंद पर छक्का मार कर मैच को और ब्रिटिश चुनौती को भी जीत लेता है। इस जीत के साथ इन्द्र भगवान भी खुश हो जाते है और पिछले कुछ समय के सूखे को ये बारिश अपने अक्ष से सींच देती है।   

कप्तान रसल और उसके साथियों को मध्य अफ्रीका भेज दिया जाता है। एलिजाबेथ लंदन वापस लौट जाती है। रोते रोते उसने भुवन और गाँव के लोगों से विदाई लेती है। फिल्म के आखिरी में अमिताभ बच्चन की आवाज में कहानी का अंत बयां करते हुवे आती ही कि, कप्तान रसल की बदली दक्षिण अफ्रीका हुई और एलिजाबेथ सारी जिंदगी स्वयं को भुवन की राधा मान कर, जिंदगी भर कवारी रह जाती है। बाद में भुवन और गौरी का विवाह हो जाता है।

इस फिल्म से मुझे ये सीख मिली जिसकों मैं ओम शांति ओम के एक फेमस डायलॉग कि “जब आप किसी को पाने की ईच्छा रखते है तो उसे दिलाने में सारी कायनात आपकी मदद करती है”  

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sharmadevesh

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